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An icon for youth 2. A wonderful leader 3. A literate leader 4. Has concern for our country 5. He knows the problems faced by a common man He is a BOON to this Country teaching us that we are the one's who can make this country good or worse for us only _______________________________ Guys check out dis Young and Promising dynamite called [ JITENDRA KUMAR SHARMA ] . He is like a breath of fresh air in the suffocating political environment.Was politics the place he wanted to be? What prompted him to join politics, his vision for the country, his zest and fire to change things, his take on progressive India...know et al heer! " There is a work that my party had started, a dream it had dreamt. I come to you today saying…allow me to turn that dream into reality "

Monday, October 4, 2010

'कॉमनवेल्थ पर देश की शिक्षा और स्वास्थ्य से ज्यादा खर्च'

'कॉमनवेल्थ पर देश की शिक्षा और स्वास्थ्य से ज्यादा खर्च'


हमारे खेल प्रशासकों ने दिल्ली गेम्स की तैयारी में इतने घपले-घोटाले किए कि इनका अर्थ ही बदल गया। अब तक सीडब्ल्यूजी का अर्थ होता था ‘कॉमनवेल्थ गेम्स’.. पर दुनिया में हमारे आयोजकों को ‘करप्ट वर्किग ग्रुप’ कहा जा रहा है।
13 नवंबर, 2003 को पूरे देश के मीडिया में एक ही खबर छाई हुई थी-भारत ने कॉमनवेल्थ गेम्स की मेजबानी हासिल कर ली। लगभग सात साल बाद मीडिया इन्हीं खेलों की खबरों से अटा हुआ है, लेकिन एक फर्क सभी को दिख रहा है। पहले जहां सुरेश कलमाडी की तारीफ हो रही थी, वहीं अब वे पूरे देश के लिए खलनायक बने हुए हैं।

 
खैर, लाख मुश्किलों के बाद हम 71 देशों के 7 हजार खिलाड़ियों व अधिकारियों के स्वागत के लिए तैयार हैं। घोटालों-घपलों के आरोपों, स्टेडियमों के तैयार होने में देरी और सितारा खिलाड़ियों के हटने से इन खेलों का आकर्षण भले ही कम हो गया हो, लेकिन देश की इज्जत बचाने के नाम पर देशवासियों को इन खेलों से जुड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है।

 
आयोजन समिति के अध्यक्ष कलमाडी हों या खेल मंत्री एमएस गिल, सभी कह रहे हैं कि देश की इज्जत बचाने के लिए इन खेलों को तो सफल बनाना ही होगा। खेलों के आयोजन में भले ही कॉमन मैन (आम आदमी) को नहीं पूछा गया, भले ही घपलों-घोटालों का पैसा चुनिंदा लोगों की जेब में चला गया हो, लेकिन इन खेलों को सफल बनाने की जिम्मेदारी तो इसी आम आदमी के कंधों पर डाली जा रही है।

 
चार साल तक पत्ता भी नहीं खड़काहमें 2003 में मेजबानी मिल गई थी, लेकिन कलमाडी एंड कंपनी ने चार साल तक पत्ता भी नहीं हिलाया। चला तो सिर्फ खेलों की सफलता के बयानों का दौर। चार साल कैसे निकल गए, पता ही नहीं चला। 2007 में आयोजन समिति का सचिवालय खोला गया। इसके बाद हमें पूरी तरह से तैयारियों में जुट जाना चाहिए था, लेकिन हुआ इसका उल्टा। आयोजन समिति के अधिकारी जुट गए खेलों की लागत बढ़ाने में और ज्यादा से ज्यादा खर्च करने में। हालत ये हुई कि बजट बढ़ता गया और काम की सुस्त रफ्तार जारी रही। ऐसा भारत में ही हो सकता है कि तीन अक्टूबर को खेलों का आगाज होना है और दो अक्टूबर की शाम तक फिनिशिंग टच दिया जा रहा है।

 
इनसे सीखिए समय गंवाने के तरीकेगेम्स की आयोजन समिति यदि एक किताब लिख दे-समय गंवाने के तरीके, तो उसकी रिकॉर्ड तोड़ बिक्री होगी। नवंबर 2003 में मेजबानी मिलने के बाद 2010 के शुरू तक स्टेडियमों का काम कछुए की रफ्तार चला। जुलाई 2004 में भारतीय ओलिंपिक एसोसिएशन ने अपने अधिकारियों को सिडनी, मेलबोर्न और कुआलालम्पुर भेजा, ताकि वे वहां के आयोजन स्थलों को देख सकें और दिल्ली गेम्स के आयोजन में मदद मिले। इस पूरी प्रक्रिया में एक साल निकल गया।

 
2005 में मीटिंगों का दौर चला, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। अगले दो साल भी ऐसे ही निकल गए, लेकिन हमारी सरकार ने आयोजन समिति से एक सवाल तक पूछने की जहमत नहीं उठाई। 2008 आया, तो दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित कुछ अधिकारियों के साथ बीजिंग चली गईं।

 
उनका कहना था कि वहां ओलिंपिक का आयोजन देखकर दिल्ली गेम्स में मदद मिलेगी। 2009 में कलमाडी ने कई बार कहा कि सारा काम ट्रैक पर है और हम समय रहते काम खत्म कर देंगे, लेकिन बयानों के अलावा कुछ नहीं हुआ। 2010 में सीजीएफ के प्रमुख माइक फेनेल ने आयोजकों को कड़ी फटकार लगाई। उन्हें मेजबानी छीनने की धमकी तक देनी पड़ी। तब जाकर हमारी सरकार जागी और अंतिम क्षणों में जाकर गेम्स की वैन्यू तैयार हो पाईं।

 
ऐसे बढ़ी खेलों की लागतइन खेलों में लागत बढ़ाने का खेल भी जमकर खेला गया। 200२ में जब इन खेलों की मेजबानी हासिल करने की बात की गई थी, उस समय इनका बजट 617.5 करोड़ रुपए बताया गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि यदि निर्धारित बजट से थोड़ी राशि ज्यादा भी खर्च हो जाएगी, तो सरकार मदद कर देगी।

 
मार्च 2003 तक बजट बढ़कर 1895.3 करोड़ रुपए हो गया, जबकि दो साल बाद इसे बढ़ाकर तीन हजार करोड़ रुपए कर दिया गया। 2008 आते-आते कहा जाने लगा कि खेलों पर कुल सात हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे। हद तो उस समय हो गई, जब 2009 में अनुमानित खर्चा 13 हजार करोड़ रुपए हो गया।

 
2002-617.5 करोड़2003-1895.3 करोड़2005-3000 करोड़2008-7000 करोड़2009-13000 करोड़

 
..तो बजट 70 हजार करोड़ से ज्यादायदि दिल्ली में किए जा रहे सौंदर्यीकरण के काम को भी खेलों में शामिल कर लिया जाए, तो इन खेलों का कुल बजट 70 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा हो जाता है। पिछले दिनों बाजार में आई किताब ‘सेलोटेप लेगेसी : दिल्ली एंड द कॉमनवेल्थ गेम्स’ के अनुसार केंद्र सरकार नेशनल रूरल हैल्थ मिशन पर हर साल जो राशि खर्च करती है, कॉमनवेल्थ गेम्स का बजट उससे चार गुना हो गया है।

 
किताब के अनुसार 5700 करोड़ रुपए दिल्ली के फ्लाई ओवर्स व ब्रिज के लिए, 16887 करोड़ रुपए दिल्ली मेट्रो के लिए तथा 35 हजार करोड़ रुपए नए पावर प्लांट्स के लिए अलॉट किए गए हैं। इस राशि को भी दिल्ली गेम्स के बजट में शामिल किया जा सकता है, लेकिन अधिकतर लोगों का मानना है कि इस राशि को शिक्षा, चिकित्सा व ऐसे अन्य कामों पर खर्च किया जाता, तो बेहतर होता।

 
..और हमारे बजट पर एक नजर

 
जिस देश में शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में काफी सुधार की दरकार है, वहां कॉमनवेल्थ गेम्स जैसे आयोजन पर इतना पैसा बहाना बेतुका है। २क्१क्-११ के केन्द्रीय बजट में इन प्रमुख मदों के लिए प्रस्तावित राशि पर एक नजर..

 
शिक्षा 31036 करोड़ रुपए

 
स्वास्थ्य 22300 करोड़ रुपए

 
नरेगा 40100 करोड़ रुपए


 
राजधानी दिल्ली के पिछले बजट की बात करें, तो यहां स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के मद में 1240 करोड़ रुपए रखे गए थे। ऐसे में विशेषज्ञों का कहना है कि कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए 70 हजार करोड़ रुपए खर्च करने की तुक नहीं थी।

 

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